ये हाथ मेरे हैं, ये आंखे मेरी हैं, यह शरीर मेरा है, यह दिल मेरा हैं,
यह बुद्धि मेरी है, यह मन मेरा है, ये विचार मेरे है,
फिर मैं क्या हूँ? आत्मा? नही, नही।
यह आत्मा मेरी है, मतलब मै आत्मा नही कुछ और हूँ। मगर हूँ क्या?
स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर तक का हर एक अंग मेरा है। तो मैं क्या हूँ?
किसी ने कहा था "वह सबकुछ निकाल दो जो आप नही हो, तत्पश्चात जो बचेगा वह आप होंगे" ।
जब मैने 'वह सबकुछ निकाल दिया जो मै नही था', तो पता चला कुछ बचा ही नही ।
यही सच है, "मैं" नाम की कोई चीज है ही नहीं ।
अर्थात् सबकुछ मेरा तो है, परन्तु मैं कुछ भी नही ।
अब अगर बात करें, कि 'क्या "मैं" का कोई अस्तित्व है'?
यदि "मैं" जैसी कोई चीज है? तो वह है "हम" ।
क्योंकि हमारी रचना स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर के अनेक अंगों का मिश्रण है ।
हम एक नही, अनेक अंग (स्थूल शरीर, बुद्धि, मन, भावना, आत्मा आदि ) हैं ।
अर्थात् हम जिसे "मैं" कहते हैं, वास्तव में वह "हम" है ।
शायद शरीर के सभी अंग मिलकर इस मिश्रित संरचना को किसी नाम से इंगित करना चाहते हैं, शायद ये इस मिश्रित संरचना को "हम" से इंगित करना चाहते हैं, परन्तु अज्ञानता वश "मैं" "मैं" रटा करते हैं ।
इसे ऐसे समझने का प्रयास करते हैं-
मान लो,
एक जगह 20 व्यक्ति इकट्ठे हैं, वे सब मिलकर कहें कि "हम एक समूह हैं" या "हम समूह हैं"। तो बात समझ आती है ।
लेकिन यदि उनमे से कोई कहे "मैं समूह हूँ", या सभी मिलकर एक साथ कहें "मैं समूह हूँ" तो यह उनकी अज्ञानता ही होगी ।
यदि शरीर, मन, बुद्धि, हृदय, भावनाएं, आत्मा कुछ न हो तो मैं भी न हूँगा, कुछ न हूँगा । ये सब हैं तो मैं हूँ ।इनके साथ सबकुछ हूँ, इनके बिना कुछ भी नही ।
यही तो है अहम् से वयम् की यात्रा ।
यही तो है मैं से हम की यात्रा ।
यही तो है बिंदु से सिंधु हो जाना ।
यही तो है संक्षिप्त से विस्तृत हो जाना ।ो
फिर भी अहम् से वयम् की यह यात्रा तो सिर्फ बौद्धिक है, वास्तविक तो तब होगी जब हम 'मैं की जगह हम को' आचरण में उतार लेंगे ।