प्रेम की अनुभूति होते ही, प्राणी आत्मानंदित हो उठता है, शरीर का रोम रोम पुलकित हो उठता है। आत्मा को एक दिव्य सुख अनुभूति होती है। आत्मपूर्णता की अनुभूति होती है । जब प्राणी स्वयं में पूर्ण हो जाता है, या पूर्णता की ओर बढ़ रहा होता है, तब दिव्य सुख की अनुभूति स्वाभाविक है। यही कारण है कि प्रेम की अनुभूति होने पर वाणी मे मधुरता आ जाती है, क्रोध कम होने लगता है, आसपास का वातावरण तक बसंती, आनंददायी, सुखदायी लगने लगता है । प्रेम माँ की ममता की तरह ही एक ईश्वरीय आशीर्वाद है, एक आत्मीय अनुभूति है।
खोजें
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
मुझको मुझमे ही रहने दो
'मेरा दर्द' मुझे ही सहने दो, 'मुझको' मुझमे ही रहने दो । मैं क्या करता हूँ? पता नहीं, 'पर जो क...

-
-:- वेदना -:- किस दुख से दृग तरल किए? किस भय से, तुम विकल गए? क्यूँ आह भरी, मुझसे मिलकर? क्यूँ आंख से, मोती निकल गए? वह...
-
तेरी मुश्किलों का लिहाज करते हैं, वर्ना हम, कब? किससे डरते हैं? लोग डरते होंगे मरने से, हम तो हर रोज तुमपे मरते हैं।। अव...
-
अड़िए ये बरसात नही अड़िए ये बरसात नहीं, जी भर के गगन रो रहा है। जरा देख मुझे आकर सजना, तेरा सजन रो रहा है। चम-चम...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें