-:- मेरी माँ -:-
तू मातु मेरी, वात्सल्य-प्रेम की पूर्ण-सिंधु,
मैं एक बिंदु।
मैं तेरी उम्मीदों का झिलमिल एक सितारा,
तू मेरी पूर्णिमा-इंदु।।
सब मुझे याद है बात,
मातु कुछ भी न भूला।
तेरी बाहें, जैसे बागों में-
तरुवर की टहनी का झूला।।
सब सहा, रहा बिन कहे,
पेंड़ अम्बर के नीचे।
आंधी-वर्षा, सर्दी-गर्मी,
मौसम सब बीतें ।।
तू तरुवर, तू धरा, सिंधु, हिय पुष्पेंन्द्रु,
मैं तेरा बिंदु।
मैं तेरी उम्मीदों का झिलमिल एक सितारा,
तू मेरी पूर्णिमा-इंदु।।
सब लेत किराया कमरे का,
तू कोख का भी, धेला न लिया।
ऊपर वाले ने माँ तुमको,
हिरदय कैसा अलबेला दिया!
धरणी-सम संयम धरा,
धरा बन गई महतारी।
विश्राम-शांति, खुशियां-निंदियां,
रातें सब वारी।।
तू तरुवर, तू धरा, सिंधु, हिय पुष्पेंन्द्रु,
मैं तेरा बिंदु।
मैं तेरी उम्मीदों का झिलमिल एक सितारा, तू मेरी,
पूर्णिमा-इंदु।।
झंझा-झकोर सम विकल सकल,
मन की अकुलाई ।
जैसे नदियों की उथल-पुथल,
सागर में समाई।
जैसे नीरधि का नीर,
गगन नीरद बन बरसे ।
माँ! तेरा वात्सल्य-प्रेम,
बन करके ममता-घन बरसे।
तू तरुवर, तू धरा, सिंधु, हिय पुष्पेंन्द्रु,
मैं तेरा बिंदु।
मैं तेरी उम्मीदों का झिलमिल एक सितारा, तू मेरी,
पूर्णिमा-इंदु।।
📃..✍अवध कुमार।
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