प्रेम की अनुभूति होते ही, प्राणी आत्मानंदित हो उठता है, शरीर का रोम रोम पुलकित हो उठता है। आत्मा को एक दिव्य सुख अनुभूति होती है। आत्मपूर्णता की अनुभूति होती है । जब प्राणी स्वयं में पूर्ण हो जाता है, या पूर्णता की ओर बढ़ रहा होता है, तब दिव्य सुख की अनुभूति स्वाभाविक है। यही कारण है कि प्रेम की अनुभूति होने पर वाणी मे मधुरता आ जाती है, क्रोध कम होने लगता है, आसपास का वातावरण तक बसंती, आनंददायी, सुखदायी लगने लगता है । प्रेम माँ की ममता की तरह ही एक ईश्वरीय आशीर्वाद है, एक आत्मीय अनुभूति है।
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शुक्रवार, 29 जनवरी 2021
बे-इंतहा प्यार
छलकती आंखें
गुरुवार, 28 जनवरी 2021
बेताब निगाहें
बागी-निगाहों से कुछ जता रहे थें,
मिलने को हूँ बेताब यह बता रहे थें ।
जो आहट सुनते ही भाग जाते थें हमे छोड़ कर,
कल वो पापा के सामने नजरें मिला रहे थें।।
सोमवार, 18 जनवरी 2021
छुपा-रुस्तम चाँद
रविवार, 17 जनवरी 2021
हे! जननी
हे! जननी
जननी मनोव्यथित न हो,
हे ममतामयी! दुःखित न हो।
व्याकुल, अनव्स्थित न हो,
भयभीत न हो, माँ त्रसित न हो।।
माँ धैर्य धरो, माँ धैर्य धरो,
व्याकुलता और बढ़ाओ न।
अनमोल आपके अश्रु-रत्न,
अँखियन से इन्हे गिराओ न।।
रोने से आपके नभ रोए,
भू भी अपना धीरज खोए।
जो चरणस्पर्श से पवित्र हुई,
वह घर की खेत की रज रोए।।
मै हूँ, माँ विचलित न हो, हे ममतामयी! दु:खित न हो।
जब तक शरीर में श्वांस शेष,
तब तलक आत्म-विश्वास शेष।
सौगंध आपके क्षीर की माँ,
सौगंध पाणि-लकीर की माँ।।
होने देता अपमान नहीं,
खोने देता सम्मान नही।
अपयश के तिमिर हटा दूँगा,
मैं सब अपवाद मिटा दूँगा ।।
नभ में सूरज जब चमकेगा,
सब तिमिर दूर हो जाएगा।
दुखभरी रैन छट जाएगी,
फिर सुखद भोर हो जाएगा।।
मेरी मइया विकलित न हो, हे ममतामयी! दुखित न हो।
क्यूँ नयन आपके द्रवित हुए?
मैं सोंच के भाव-विभोर हुआ।
कोई दबी आह सी फूट पड़ी,
क्लेशित हिय का हर छोर हुआ ।।
सद्मार्ग पे हूँ सन्मार्ग पे हूँ,
मत सोंचो कि अपमार्ग पे हूँ।
सत्य प्रेम धर्मच्युत मार्ग,
बतलाए आपके मार्ग पे हूँ।।
सूर्य-रश्मियों को मइया,
कब तक नीहार ढक पाएगा?
लाख जलद गरजे बरसे,
तो क्या सूरज बुझ जाएगा?
हे माते! चिंतित न हो, हे ममतामयी! दुःखित न हो।
तपलीन हुआ भागीरथ तो,
धरती पर गंगा आएगी।
बसंत ऋतु पर कोयल क्या-
हवा मल्हारें गाएगी।।
पीपल के नये-नये पत्ते,
देख मनस् हर्षाएगा।
नव सुमन खिलेंगे उपवन मे,
जग प्रेममयी हो जाएगा।।
होली मे ढोलक की ताने,
गलियों मे होली के गाने।
चहुंमुखी प्रेम छा जाएगा,
जैसे द्वापर आ जाएगा।।
जग प्रेममयी हो जाएगा, आनंदमयी हो जाएगा।
सर्वतोमुखी बस सुख होगा, भोली मातु भ्रमित न हो।
अवध कुमार ।
शनिवार, 16 जनवरी 2021
तेरी मुश्किलों का लिहाज करते हैं
रिश्ते
शुक्रवार, 15 जनवरी 2021
ये बेचैनियां
गुरुवार, 14 जनवरी 2021
रिश्ते
बुधवार, 13 जनवरी 2021
हम हों तुम हों
मंगलवार, 12 जनवरी 2021
आपके इश्क़ मे
रविवार, 10 जनवरी 2021
तुम मिलो तो....
तुम मिलो तो…….
होठों पे मुस्कानी गुलिस्ताँ सजा रखा है,
हाँ मैने आँसुओं को पत्थर बना रखा है।
तुम मिलो तो उमड़ कर बरस जाऊं,
सुर्ख आँखों में समंदर छिपा रखा है।।
अवध कुमार...✍️
शुक्रवार, 8 जनवरी 2021
अभिलाषा
गुरुवार, 7 जनवरी 2021
काश
काश!
काश! प्रभाकर की किरणों पर,
गर अक्षर लिक्खा जाता ।
मैं अपने सारे खत तुम तक,
लश्कारों से पहुँचाता।।
काश! हवा के झोंके सुनतें,
कानाफूसी कर आता।
मैं अपने सारे सन्देशे,
समीरणों से पहुँचाता।।
काश! तिमिर जी पथ बन जातें,
या मैं स्वयं तिमिर बन जाता।
कहीं अंधेरे मे गर चलतें,
गिरने से मैं तुम्हें बचाता ।।
बाहुपाश मे भरकर तुमको,
रोज रात को तुम्हें सुलाता।
गर सपनो से नींद उचटती,
थपकी देकर पुनः सुलाता ।।
काश! दिवा मे मैं घुल जाता,
या मैं सूर्य-किरण बन जाता।
सर्दी मे गुनगुन सी गरमी,
देकर सारी ठंड भगाता।।
सागर के पानी पर जैसे,
सूरज अद्भुत रंग सजाता ।
सुबह तुम्हारे चेहरे पर मैं,
झिलमिल इक तस्वीर बनाता ।।
एकाकी में कभी बैठतीं,
सूर्य-रश्मि बन नैन मिलाता।
तुम इठलाकर बाते करतीं ,
मैं चितवन करते इतराता।।
बाद वृष्टि के खिली धूप, या-
शामों की बन स्वर्ण-लालिमा।
कभी मैं तुमको हर्षित करता,
कभी मैं अपनी याद दिलाता।।
काश! पवन जी मुझसे चलतें,
या मैं स्वयं पवन बन जाता।
गर्मी में तर-बदर बदन का,
समीरणों से स्वेद सुखाता।।
चंदन गुलाब जैसे बागों की,
मैं खुशबू मनमोहक लाता।
कभी तुम्हारी सांस कभी,
शीतल मस्त वायु बन जाता।।
काश! कहीं बादल बन जाता,
काश! कहीं मैं जल बन जाता।
प्यास बुझाता पानी बनकर,
रक्त मे मिलकर दिल धड़काता।।
काश! कहीं आकाश मैं होता,
काश! कहीं अवकाश मैं होता ।
बाहर से तुम मुझ मे होती,
अन्दर से मैं तुझ मे होता।।
अवध कुमार...✍️
शुक्रवार, 1 जनवरी 2021
अर्ज किया था
मुझको मुझमे ही रहने दो
'मेरा दर्द' मुझे ही सहने दो, 'मुझको' मुझमे ही रहने दो । मैं क्या करता हूँ? पता नहीं, 'पर जो क...

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-:- वेदना -:- किस दुख से दृग तरल किए? किस भय से, तुम विकल गए? क्यूँ आह भरी, मुझसे मिलकर? क्यूँ आंख से, मोती निकल गए? वह...
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तेरी मुश्किलों का लिहाज करते हैं, वर्ना हम, कब? किससे डरते हैं? लोग डरते होंगे मरने से, हम तो हर रोज तुमपे मरते हैं।। अव...
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अड़िए ये बरसात नही अड़िए ये बरसात नहीं, जी भर के गगन रो रहा है। जरा देख मुझे आकर सजना, तेरा सजन रो रहा है। चम-चम...